पर्यावरण प्रदूषण (Environment pollution)

पर्यावरण में अवांछित एवं अनुपयोगी पदार्थों के मिलने या उपयोगी तत्वों की कमी से इसकी गुणवत्ता में ह्रास हो जाता है। यही पर्यावरण प्रदूषण कहलाता है।
पर्यावरण प्रदूषण के फलस्वरूप वायु, जल, मिट्टी के भौतिक, रासायनिक तथा जैविक गुणों में परिवर्तन हो जाते है। यह परिवर्तन पारिस्थितिक तंत्र एवं सभी जीव धारियों के लिये हानिकारक है। पर्यावरण प्रदूषण के फलस्वरूप ग्लोबल वार्मिंग, ओजोन परत का नष्ट होना, असमय वर्षा होना, समुद्र के जल स्तर का बढ़ना, मरुस्थल का विस्तार होना जैसी कई समस्याएं उत्पन्न हुई है।

प्रदूषण के मुख्य प्रकार
प्रदूषण के प्रकार निम्न है-

जल प्रदूषण
वायु प्रदूषण
मृदा प्रदूषण
ध्वनि प्रदूषण
मृदा प्रदूषण
तापीय प्रदूषण
रेडियोधर्मी प्रदूषण

जल प्रदूषण

जल में अवांछित पदार्थों जैसे विषैले रसायन, रेडियोऐक्टिव पदार्थ, कचरा, प्लास्टिक इत्यादि मिलने से उसके रासायनिक एवं भौतिक गुणों में परिवर्तन आ जाते है एवं उसकी गुणवत्ता में ह्रास हो जाता है। इसे जल प्रदूषण (Water pollution) कहते है।

जल प्रदूषण के कारण तालाबों, झीलों व नदियों का जल दूषित हो जाता है। दूषित जल से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। प्रदूषित जल पीने से कई बीमारियां उत्पन्न हो जाती है। जल प्रदूषण वर्तमान में एक गंभीर समस्या बनी हुई है।

जल प्रदूषण (Water pollution) के कारण

जल प्रदूषण प्राकृतिक एवं मानवीय कारणों से हो सकता है। प्राकृतिक कारणो में भू-क्षरण, खनिज पदार्थ, पेड़-पौधों के अवशेष व पत्तियां, ह्युमस तथा जीव-जंतुओं के अपशिष्ट का जल के प्राकृतिक स्रोतों में मिलना है।

मानवीय कारकों में औद्योगिक बहिस्राव:, घरेलू बहिस्राव:, वाहित मल ( sewage ) एवं कृषि बहिस्राव: प्रमुखतया आते है।

औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाले जल में हानिकारक विषैले रसायन होते है। इनको नदियों, झीलों, तालाबों में छोड़ने पर ये जल को अत्यधिक प्रदूषित करते है।

कीटनाशक जैसे DDT, BHC भी जल को प्रदूषित करते है।

कृषि उर्वरक के रुप में नाइट्रोजन एवं फॅास्फोरस के यौगिकों का उपयोग बहुतायत में किया जाता है। जब ये नदी, तालाबों में मिल जाते है तो ये जल में उपस्थित शैवालों की अत्यधिक वृद्धि करते है। इन शैवालों की मृत्यु के बाद ये जीवाणुओं का भोजन बनते है। ये जीवाणु जल में उपस्थित आक्सीजन का अत्यधिक मात्रा में उपयोग करते है। इससे जल में आक्सीजन की कमी हो जाती है एवं जल प्रदूषित हो जाता है।

औद्योगिक इकाइयों जैसे तेल रिफाइनरी, वस्त्र एवं चीनी मिलें, कागज एवं प्लास्टिक फैक्ट्रियों से उत्सर्जित रसायनों में आर्सेनिक, लेड तथा फ्लुओराइड होते है जिससे जल प्रदूषित होता है।

वाहित मल ( sewage ), साबुन एवं डिटर्जेंट मिले जल को तालाबों, झीलों में छोड़ने पर जल प्रदूषित होता है।

जब कोई समुद्री जहाज दुर्घटनाग्रस्त होता है तो उसमें उपस्थित खनिज तेल समुद्र की सतह पर फैल
जाता है जो जल प्रदूषण का कारण बनता है।

रेडियोऐक्टिव पदार्थ, प्लास्टिक, कचरा इत्यादि समुद्र में छोड़ने से भी समुद्री जल अत्यधिक मात्रा में प्रदूषित हो गया है।

जल प्रदूषण के प्रभाव

जल प्रदूषण के कारण मानव स्वास्थ्य पर अति विपरीत असर हुआ है।

  • जल प्रदूषण का व्यापक प्रभाव सन् 1956 ई. में जापान के मिनेमाटा शहर के लोगों में देखा गया। प्रदूषित जल के कारण उस क्षेत्र के लोग मिनेमाटा रोग से ग्रसित हो गए। इस शहर के लोग मिनेमाटा खाड़ी में पायी जाने वाली मछलियों का उपयोग भोजन में करते थे। इस खाड़ी में औद्योगिक बहिस्राव: के रुप में हानिकारक मिथाइल मरक्यूरी ( methyl mercury ) उपस्थित था। इस दूषित जल में उपस्थित मछलियों में भी मिथाइल मरक्यूरी ( methyl mercury ) का अंश पाया गया जो मिनेमाटा रोग का कारण बना। मिनेमाटा रोग में तंत्रिका तंत्र प्रभावित होता है। इससे देखने, बोलने व सुनने की क्षमता प्रभावित होती है तथा मांसपेशियां कमजोर हो जाती है।
  • कभी-कभी अनुपचारित वाहित मल सीधे ही नदियों में प्रवाहित कर दिया जाता है। वाहित मल द्वारा संदूषित जल में जीवाणु, वायरस, कवक तथा परजीवी हो सकते है। जिनसे हैजा, मियादी बुखार तथा पीलिया जैसे रोग हो सकते है।
  • साबुन एवं डिटर्जेंट युक्त जल पीने से कृमि रोग एवं पेट से संबंधित रोग हो जाते है।
  • सीवेज युक्त जल उल्टी, दस्त, पेचिस एवं आंत्र रोग का कारण बनते है।
  • फ्लुओराइड युक्त जल पीने से हड्डियां कमजोर हो जाती है तथा दाँतों का फ्लोरोसिस रोग हो जाता है। फ्लुओराइड की समस्या राजस्थान के नागौर एवं अजमेर जिले में अत्यंत भंयकर रुप लिये हुए है।
  • नाइट्रोजन युक्त जल पीने से ये हीमोग्लोबिन के साथ क्रिया करके मिथेमोग्लोबिन बनाता है। ये शरीर में रुधिर संचरण को कम करता है। इसे ब्लू बेबी सिंड्रोम कहते है।
  • जल में कैडमियम की उपस्थित इटाई-इटाई रोग का कारण बनता है।
  • ऐस्केरिस एवं नारु के कृमि दूषित जल पीने से शरीर में प्रवेश कर जाते है।

मानव स्वास्थ्य के अलावा अन्य प्राणियों एवं पारिस्थितिकी तंत्र पर भी जल प्रदूषण का अत्यंत दुष्प्रभाव हुआ है।

  • जल प्रदूषण से मृदा में उपस्थित उपयोगी जीवाणु जैसे ऐजोला, ऐजोटोबेक्टर इत्यादि प्रभावित होते है।
  • जल में कार्बनिक पदार्थों ( जैसे मल-मूत्र, पेड़-पौधों की पत्तियां ) की उपस्थिति जल की उत्पादकता बढ़ा देती है। जिससे जलीय पौधे, शैवाल अधिक वृद्धि करते है और जल की सतह को ढ़क लेते है जिससे जीवों के लिये आक्सीजन की कमी हो जाती है।
  • झीलों, तालाबों, समुद्रों के तलहटी में प्रदूषक तत्वों के जमा होने से जलीय पौधे नष्ट हो रहे है तथा जलीय खरपतवार में वृद्धि हो रही है।

जल प्रदूषण को कम करने के उपाय

वाहित जल को उपचारित करके ही नदी, नालों में छोड़ने चाहिए।

औद्योगिक इकाइयों में जल परिष्करण संयंत्र लगाने चाहिए। दूषित जल को स्वच्छ करके इसका पुन: उपयोग करना चाहिए।

कृषि कार्य के लिये रासायनिक उर्वरक का उपयोग कम किया जाना चाहिए। इनके स्थान पर जैविक खाद का उपयोग करना चाहिए।

जल प्रदूषण को कम करने वाले पौधे जैसे जलकुंभी को जलाशयों, तालाबों, झीलों में उगाना चाहिए। ये प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया के अंतर्गत जल को शुद्ध करती है।

शैवाल प्रस्फुटन क्या है?

वाहित मल, कृषि में प्रयुक्त उर्वरक एवं अन्य अपशिष्ट पदार्थों में नाइट्रेट एवं फास्फेट युक्त रसायन प्रचुर मात्रा में उपस्थित होते है। ये रसायन युक्त अपशिष्ट जलाशयों व तालाबों में मिल जाते है तो ये शैवालों के लिए पोषक का कार्य करते है। जिससे इन जलाशयों में शैवालों की वृद्धि तेजी से होती है। शैवालों की इस अत्यधिक वृद्धि को शैवाल ब्लूम कहते है। ये शैवाल ऑक्सीजन का अत्यधिक मात्रा में उपयोग करते है। इसके अतिरिक्त मृत शैवालों का जीवाणु द्वारा अपघटन भी होता रहता है जिससे जल में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है। जल में ऑक्सीजन की कमी से जलीय जीव मरने लगते है।

वायु प्रदूषण

जब वायुमंडल में एक या अधिक प्रदूषकों की मात्रा इतनी अधिक हो जाए जिससे कि वायु की गुणवत्ता में ह्रास हो जाए तथा यह जैव समुदाय के लिये हानिकारक हो, तो इसे वायु प्रदूषण (Air pollution) कहते हैं।”

वायु प्रदूषकों के प्रकार

प्राथमिक प्रदूषक (Primary Pollutants)

ये प्रदूषक प्राकृतिक अथवा मानवीय क्रियाकलापों के द्वारा सीधे वायु में निष्कासित होते हैं। इनके उदाहरण हैं: ईंधन जलाने से निकलने वाली सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन के ऑक्साइड, कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, विविध हाइड्रोकार्बन तथा कणिकाएँ।

द्वितीयक प्रदूषक (Secondary Pollutants)

सूर्य के विद्युतचुंबकीय विकिरणों के प्रभाव के अधीन प्राथमिक प्रदूषकों तथा सामान्य वायुमंडलीय यौगिकों के बीच रासायनिक अभिक्रियाओं के परिणामस्वरूप द्वितीयक प्रदूषक का निर्माण होता है। उदाहरण के लिये, प्राथमिक प्रदूषक सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) वायुमंडल की ऑक्सीजन के साथ अभिक्रिया करके सल्फर ट्राइऑक्साइड (3) बनाती है, जो एक द्वितीयक प्रदूषक है। सल्फर ट्राइऑक्साइड जलवाष्प से मिलकर एक और द्वितीयक प्रदूषक सल्फ्यूरिक अम्ल (H₂SO₄) बनाता है जो कि अम्ल वर्षा का घटक है। NO2, के दो अन्य द्वितीयक प्रदूषक परॉक्सीएसिटिल नाइट्रेट (PAN) तथा नाइट्रिक अम्ल (HNO3) हैं। धूम कोहरा (SMOG) धुएँ और कोहरे का मिश्रण होता है।

वायु प्रदूषक तालिका

प्रदूषकस्रोतस्वास्थ्य प्रभाववायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) सीमाएँ
पार्टिकुलेट मैटर (PM)वाहन, बिजली संयंत्र, औद्योगिक प्रक्रियाएं, जंगल की आग, धूलश्वसन संबंधी समस्याएं (अस्थमा, ब्रोंकाइटिस), फेफड़ों को नुकसान, हृदय रोग, कैंसरPM2.5: 0-50 (अच्छा), 51-100 (संतोषजनक), 101-150 (संवेदनशील समूहों के लिए अस्वस्थ), 151-200 (अस्वस्थ), 201-300 (बहुत अस्वस्थ), 301-400 (खतरनाक), 401+ (आपातकालीन)
ओजोन (O3)वाहन, बिजली संयंत्र, औद्योगिक प्रक्रियाएंश्वसन संबंधी समस्याएं (सीने में जकड़न, खांसी), फेफड़ों को नुकसान0-50 (अच्छा), 51-100 (मध्यम), 101-150 (संवेदनशील समूहों के लिए अस्वस्थ), 151-200 (अस्वस्थ)
नाइट्रोजन डाइऑक्साइड (NO2)वाहन, बिजली संयंत्र, औद्योगिक प्रक्रियाएंश्वसन संबंधी समस्याएं (श्वास कष्ट, सीने में दर्द), फेफड़ों को नुकसान0-50 (अच्छा), 51-100 (मध्यम), 101-150 (संवेदनशील समूहों के लिए संवेदनशील), 151-200 (अस्वस्थ)
सल्फर डाइऑक्साइड (SO2)बिजली संयंत्र, औद्योगिक प्रक्रियाएं, ज्वालामुखी विस्फोटश्वसन संबंधी समस्याएं (खांसी, घरघराहट), आंखों में जलन, त्वचा में जलन0-50 (अच्छा), 51-100 (मध्यम), 101-150 (संवेदनशील समूहों के लिए संवेदनशील), 151-200 (अस्वस्थ)
कार्बन मोनोऑक्साइड (CO)वाहन, हीटिंग उपकरण, बिजली जनरेटरश्वसन संबंधी समस्याएं (सिरदर्द, चक्कर आना), तंत्रिका तंत्र को नुकसान, हृदय रोग9-12 (अच्छा), 13-15 (संवेदनशील समूहों के लिए संवेदनशील), 16-30 (संवेदनशील समूहों के लिए अस्वस्थ), 31-40 (अस्वस्थ)
सीसा (Pb)वाहन, औद्योगिक प्रक्रियाएंतंत्रिका तंत्र को नुकसान, विकासात्मक देरी, गुर्दे को नुकसान0.15 µg/m³ से कम (अच्छा)
वाष्पशील कार्बनिक यौगिक (VOCs)पेंट, सॉल्वैंट्स, गैसोलीन, औद्योगिक प्रक्रियाएंश्वसन संबंधी समस्याएं (आंखों में जलन, सांस की तकलीफ), कैंसर का खतराAQI के लिए विशिष्ट मान नहीं, व्यक्तिगत VOCs के लिए अलग-अलग मान हो सकते हैं
हैजार्डस एयर पॉल्यूटेंट (HAPs)औद्योगिक प्रक्रियाएं, बिजली संयंत्र, वाहन

वायु प्रदूषण के कारण (Causes of Air Pollution)

वायु प्रदूषण या तो प्राकृतिक हो सकता है या मानवजनित। वायु प्रदूषण के लिए उत्तरदायी प्राकृतिक कारण निम्नलिखित

  • प्रालामुखी विस्फोट- इनसे सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂), हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S), कार्बन मोनोऑक्साइड (CO) आदि प्रदूषणकारी गैसें निकलती हैं।
  • जंगल की आग।
  • कच्छीय गैसें (जैसे CH4)
  • प्राकृतिक, कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थों के अपघटन उत्पाद ।
  • निलम्बित कणीय पदार्थ
  • बाह्य-स्थलीय पदार्थ ।
  • ब्रह्माण्डीय रज ।
  • पराग, बीजाणु आदि वाय व एलर्जीकारक ।

मानवजनित वायु प्रदूषक निम्नलिखित हैं

  • औद्योगिक उत्सर्ग ।
  • स्वचालित वाहन रेचन (Automobile Exhaust) :- वायु प्रदूषण के 60 प्रतिशत प्रदूषण के लिय यही विरेचक उत्तरदायी है। औसत 1000 गैलन पैट्रोल के जलने से लगभग 3200 पांउड CO, 200-400 पाउंड कार्बनिक-वाष्प, 20.75 पाउंड नाइट्रोजन के ऑक्साइड, 2 पाउंड कार्बनिक अम्ल, 2 पाउंड अमोनिया व 0.3 पाउंड ठोस कार्बन कण निकलते हैं।
  • घरेलू उत्सर्ग।
  • जीवाश्म ईंधनों के जलने से उत्पन्न पदार्थ ।
  • युद्ध में प्रयुक्त विस्फोटक सामग्री एवं अन्य रसायन आदि ।
  • कृषि में प्रयुक्त पदार्थ एवं कृषि क्रियाएँ।

वायु प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Air Pollution)

ये प्रदूषक मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।

इनके कुछ प्रदूषक एवं उनके प्रभाव निम्नलिखित हैं:

  1. सल्फर डाइऑक्साइड (SO₂) – इससे वक्ष संकुचन, सिरदर्द, उल्टी होती हैं। इससे होने वाले विकार मृत्यु का भी कारण बन सकते हैं। यह नेत्र, फुफ्फुस व गले की श्लेष्मा झिल्ली को प्रभावित कर कई रोग पैदा करती है। SO₂, पौधों में रंध्रों द्वारा प्रवेश कर जल के साथ H₂SO₄ बनाता है। यह अम्ल पर्णहरित को विघटित करता है। लाइकेन व ब्रायोफाइट पादप SO₂ से शीघ्र प्रभावित होते हैं। यह गैस इन्हें मार देती है। लाइकेन को इस प्रदूषक का सूचक (Indicator) माना जाता है।
  2. धुआँ, कुहरे के साथ मिलकर धूम-कुहरा (Smog) बनाता है। इसमें SO2, O2, से अभिक्रिया कर SO4, बनाती है जो जल के साथ H2SO4 (गंधक का अम्ल ) बन जाता है। यह अम्ल इमारतों के पत्थरों व दीवारों को संक्षारित (Corrode) करता है।
  3. प्राकृतिक ईधनों के जलने से निकली NO2, गैस ऑक्सीकृत हो NO3 बनाती है। यह NO3 जल के साथ मिलकर हानिकारक HNO3 (नाइट्रिक अम्ल) बनाती है जो वर्षा के जल के साथ भूमि पर आ जाता है। यह वर्षा ‘अम्लीय वर्षा’ (Acid rain) होती है। अम्लीय वर्षा से मृदा की अम्लीयता बढ़ जाती है जो मृदा के उपजाऊपन को नष्ट करती है। यह इमारतों, रेल पटरियों, स्मारकों, मूर्तियों को संक्षारित कर क्षति पहुँचाती है।
  4. नाइट्रोजन के ऑक्साइड- ये पक्ष्मों (Cilia) की क्रिया को रोकते हैं। अतः कालिख तथा धूल कण फेफड़ों की गहराई में पहुँच जाते हैं जिससे श्वसन विकार होते हैं। नाइट्रोजन के ऑक्साइड आँखों में जलन, नाक व श्वास नली के रोग उत्पन्न करते हैं।
  5. हाईड्रोकार्बन के अपूर्ण दहन से बनने वाला 3-4 बैन्जिपायरिन, फुफ्फस कैन्सर का कारण है।
  6. हाइड्रोजन सल्फाइड- यह आँखों और गले में जलन उत्पन्न करती है तथा मितली आती है।
  7. हाइड्रोजन साइनायड- यह तंत्रिका कोशिकाओं को प्रभावित करती है। इससे गले का सूखना, अस्पष्ट दृष्टि तथा सरदर्द आदि प्रभाव होते हैं।
  8. अमोनिया- यह ऊपरी श्वसन मार्ग में सूजन उत्पन्न करता है।
  9. ईंधन के अपूर्ण दहन से CO (कार्बन मोनो-ऑक्साइड) बनती है। वायुमण्डलीय कुल प्रदूषकों का लगभग 50% CO है। श्वास के साथ यह विषाक्त गैस मनुष्य के शरीर में प्रवेश कर रूधिर के हीमोग्लोबिन से संयोजित हो जाती है। इस संयोजन की दर हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन संयोजन की दर से 210 गुना अधिक है। परिणामतः मनुष्य के शरीर में 02 की कमी हो जाती है।
  10. धुएँ के अन्य कणीय अंश जैसे कि कालिख (Soot), टार, धूलकण आदि प्रकाश को कम कर देते है। ये भूमि पर धीरे-धीरे जमते है और पशु व मनुष्य के शरीर में, श्वसन द्वारा जाकर श्वासनली व फेंफड़ों के रोग पैदा करते हैं। ये धातु, पेन्ट की हुई सतहों, वस्त्रों, कागज व चमड़े को क्षति पहुँचाते हैं।

वायु-प्रदूषण का नियंत्रण (Control of Air Pollution)

संसाधनों के विवेकपूर्ण तथा सीमित उपयोग द्वारा वायु-प्रदूषण का नियंत्रण किया जा सकता है। इसके नियंत्रण की कुछ रणनीतियाँ निम्नलिखित हैं :

  1. अधिशोषण (Adsorption)- यह कुछ पदार्थों की सतह की विशेषताओं पर आधारित एक भौतिक प्रक्रिया है। इसमें तरल और गैस प्रवाह का सम्बन्ध, एक ठोस से कर देते हैं। सक्रियत चारकोल (Activated charcoal), सिलिका जैल, रेजिन आदि का उपयोग इस उद्देश्य से अधिशोषक के रूप में किया जाता है। इस प्रक्रिया में अधिशोषक का बार-बार उपयोग किया जाता है। अतः यह एक मितव्ययी प्रक्रिया है।
  2. अवशोषण (Absorption) यह भी एक भौतिक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में गैस को एक तरल में घुलने दिया जाता है। अवशोषण के लिए जल सर्वाधिक उपयुक्त विलायक या माध्यम है।
  3. संघनन (Condensation) – गैसीय वाष्पों का नियंत्रण, संघनन प्रक्रिया द्वारा किया जा सकता है। परिवेशी (Ambient) ताप पर बहुत कम वाष्प दाब वाले हाइड्रोकार्बनों तथा अन्य कार्बनिक पदार्थों को हटाने के लिए यह सबसे उपयुक्त प्रक्रिया है। जल या वायु शीतलित संघनित्रों के उपयोग से वायु प्रदूषण का संतोषजनक नियंत्रण किया जा सकता है।
  4. रासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा (By chemical reactions) रासायनिक अभिक्रियाओं द्वारा भी वायु प्रदूषण का नियंत्रण किया जा सकता है ।

मृदा प्रदूषण (Soil Pollution)

मृदा, स्थलमण्डल (Lithosphere) का वह भाग है जो वायुमण्डल, जलमण्डल तथा जैवमण्डल से अन्योन्य क्रियाएँ करता है। मृदा के गुणों में अंवाछनीय परिवर्तन मृदा प्रदूषण कहलाता है।

मृदा प्रदूषण के स्रोत (Sources of Soil Pollution)

  1. उद्योग (Industry) – विभिन्न उद्योगों में कागज व लुगदी बनाने, तेल शोधन, गलाने वाले, विभिन्न प्रकार के रसायन तैयार करने वाले, वनस्पति घी, शक्कर, शराब बनाने तथा उर्जा संयंत्र मृदा प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं। अधिकांश औद्योगिक भट्टियां राख उत्पन्न करती हैं। इसका मृदा प्रदूषण में काफी योगदान है।
  2. खनन (Mining)- विभिन्न खनन प्रक्रियाओं मे धरातलीय प्रदूषण के साथ-साथ मृदा की ऊपरिमृदा (Topsoil) तथा अवमृदा (Subsoil) हट जाती है तथा पृथ्वी में गहरे गड्ढे बन जाते हैं।
  3. कृषि (Agriculture)- रसायन विज्ञान के क्षेत्र में हुई क्रांति का सीधा प्रभाव कृषि के क्षेत्र में पड़ता है। कृषि से अधिक उत्पादन के लिये सिंचाई, उन्नत बीजों का उपयोग, उर्वरकों, पीड़कनाशी, कवकनाशी, शाकनाशी, रसायनों आदि का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है। इन रसायनों का अत्यधिक उपयोग मृदा को गम्भीर रूप से प्रदूषित करता है।
  4. घरेलू कचरा (Garbage) – घरेलू कचरे के अन्तर्गत कागज, कांच व कपड़े, लोहे व एल्युमिनियम के डिब्बे, प्लास्टिक डिब्बे, पॉलिथीन थैलियाँ, रबर, चमड़े की कतरन, पशु खांद, भवन निर्माण के अपशिष्ट आदि आते हैं। भूमि प्रदूषण में सबसे अधिक योगदान घरेलू कचरे का है।
  5. रेडियोधर्मी पदार्थ (Radioactive substance) रेडियोधर्मी पदार्थों के विघटन से एल्फा या गामा किरणें निकलती रहती है। परमाणु परीक्षण से निकलने वाले रेडियोधर्मी तत्व भूमि में प्रवेश कर जाते हैं।
  1. मृतजीव (Dead Organism)- मृदा का प्रदूषण, पशुओं एवं पक्षियों व अन्य जीवों के मृत शरीर से भी होता है।

मृदा प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Soil pollution)

  1. भूमि में रासायनिक खाद तथा फसल को विभिन्न कीटों एवं रोगों से बचाने के लिए विभिन्न, कवकनाशी, पीड़कनाशी रसायनों का उपयोग किया जाता है। ये विषैले रसायन मृदा के लाभदायक सूक्ष्म जीवों को भी नष्ट कर देते हैं। जिससे मृदा निर्माण की प्रक्रिया रूक जाती है।
  2. कीटनाशी, शाकनाशी, कवकनाशी रसायनों के छिड़काव से पौधों में प्रकाश संश्लेषण क्रिया मन्द हो जाती है।
  3. निरन्तर सिंचाई तथा उर्वरकों के उपयोग से भूमि में लवणता बढ़ती है तथा अनेक अवांछित खनिजों की मृदा मे बहुलता हो जाती है फलस्वरूप भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है।
  4. क्लोरिन युक्त हाईड्रोकार्बन जैसे DDT, 2,4-D, 2,4,5-T का अपघटन नहीं होने से मृदा मे एकत्रित होते रहते है। जल एवं खनिजों के अवशोषण के साथ-साथ ये प्रदूषक भी पौधों द्वारा अवशोषित हो, खाद्य श्रृंखला (Food chain) में प्रवेश कर जाते है एवं विभिन्न पोषण स्तरों को विषाक्त बना देते है।
  5. खनन प्रक्रमों में किये जाने वाले विस्फोटों से क्षेत्र विशेष की कृषि उत्पादन क्षमता नष्ट हो जाती है।
  6. परमाणु परीक्षण से रेडियोधर्मी तत्व वायुमण्डल की ऊपरी परतों में एकत्रित हो जाते हैं। जो वर्षा के जल के साथ भूमि अथवा जल में प्रवेश कर जाते हैं।

ध्वनि प्रदूषण (Noise Pollution)

अनचाही, अवांछनीय ध्वनि को शोर (Noise) कहते हैं। ध्वनि की प्रबलता जब इतनी बढ़ जाती है कि यह हमें प्रकोपित करने लगे तो ऐसे शोर को ध्वनि प्रदूषण (Noise Pollution) कहते हैं।

धीमी मर्मर ध्वनि (Whisper) और वायुयान के इंजन द्वारा उत्पन्न शोर में ध्वनि प्रबलता का ही अंतर है। अतः इन दोनों ध्वनियों को अभिव्यक्त करने के लिये ध्वनि ही मापक इकाई होती है। इसे डेसिबल (Decibel) कहते हैं। इस मापक इकाई को वैज्ञानिक ग्रेहम बेल (Graham bell) ने प्रस्तुत किया था। इसे db द्वारा व्यक्त किया जाता हैं। शून्य स्तर की ध्वनि से प्रारम्भ होकर, शान्त स्थलों जैसे पुस्तकालय, रेडियो-ध्वनि, अभिलेखन कक्ष आदि में ध्वनि 30db होती है। घरों में शांत अध्ययन कक्ष में, हल्के वाहनों की आती ध्वनि लगभग 50db होती है। सामान्य वार्तालाप में यह 50db होती है। ट्रकों व बसों के द्वारा उत्पन्न ध्वनि 90db होती है। कारखानों में मशीनों द्वारा उत्पन्न ध्वनि 100db तथा जैट वायुयान के चलने पर 180db की ध्वनि उत्पन्न होता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने किसी भी शहर के लिए 45 dB को सुरक्षित शोर स्तर तय किया है। 10 मिली सेकण्ड से अधिक समय के लिए 90 dB से अधिक ध्वनि स्तर, श्रवणिक प्रतिवर्ती क्रिया (Aural reflex action) टिम्पैनिंक झिल्ली का संकुचन करता है। 140 dB से अधिक ध्वनि स्तर कर्ण अस्थिका (Ear oscicles) की गति की दिशा को बदल देता है, जिससे आन्तरिक कर्ण द्वारा प्राप्त ध्वनि की तीव्रता कम हो जाती है। यह सुरक्षात्मक, प्रतिवर्ती क्रिया प्रबल शोर के बुरे प्रभाव का सामना थोड़े समय के लिए ही कर पाती है। इन तथ्यों के आधार पर अस्पताल क्षेत्रों में 65 dB को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहनशीलता की सीमा माना गया है।

80db से अधिक की कोई भी ध्वनि एक प्रदषक है जो हमारी श्रवण क्षमता के लिये हानिकारक है। 100db के शोर में हम विचलन व बैचेनी अनुभव करने लगते हैं और 120db से अधिक का शोर सिर में वेदना उत्पन्न करता है। प्रबल शोर हमारे भौतिक-पर्यावरण को क्षति पहुँचाता है। ध्वनि गति से भी तेज चलने वाले सुपरसोनिक जेट अपने पीछे ध्वनि तरंगों को छोड़ता जाता है। इन्हें ‘ध्वनि बूम’ (Sonic boom) कहते है। ध्वनि बूमों के भूमि सतह से टकराने पर, यह इमारतों को कमजोर करता है।

ध्वनि प्रदूषण (Noise Pollution) के मानव स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव

शोर वार्तालाप अवरोधक क्षमता को कम करता है और होता है। यह हमारी श्रवण मानसिक शांति को विक्षोभित करता है। घनी जनसंख्या वाले शहरों व औद्योगिक नगरों के शोर-शराबे में रहने वाले नागरिकों को अपेक्षाकृत कम आयु में ही कम सुनाई देता है। शोर मानसिक तनाव तथा हृदय गति को बढ़ाता है। अत्यधिक शोर यकृत व मस्तिष्क के कार्यों के लिये हानिकारक होता है। अचानक होने वाली प्रबल ध्वनि स्वास्थ्य के लिये अत्यन्त हानिकारक होती है। इससे श्रवण शक्ति समाप्त हो जाती है या फिर मनुष्य मूर्छित भी हो सकता है।

अधिक प्रबल शोर से नेत्र-पुतलियाँ प्रसारित हो जाती है, त्वचा पीली पड़ जाती है, ऐच्छिक पेशियाँ संकुचित होती हैं, जठर-रसों का स्रवण अवरूद्ध हो जाता है, रुधिर दाब बढ़ जाता है और रूधिर में एड्रिनेलीन हार्मोन की मात्रा बढ़ जाती है तो तंत्रिका-पेशीय तनाव व चिन्ता तथा बेचैनी बढ़ाता है।

मृदा प्रदूषण (Soil Pollution)

मृदा, स्थलमण्डल (Lithosphere) का वह भाग है जो वायुमण्डल, जलमण्डल तथा जैवमण्डल से अन्योन्य क्रियाएँ करता है। मृदा के गुणों में अंवाछनीय परिवर्तन मृदा प्रदूषण कहलाता है।

मृदा प्रदूषण के स्रोत (Sources of Soil Pollution)

  1. उद्योग (Industry) – विभिन्न उद्योगों में कागज व लुगदी बनाने, तेल शोधन, गलाने वाले, विभिन्न प्रकार के रसायन तैयार करने वाले, वनस्पति घी, शक्कर, शराब बनाने तथा उर्जा संयंत्र मृदा प्रदूषण के मुख्य स्रोत हैं। अधिकांश औद्योगिक भट्टियां राख उत्पन्न करती हैं। इसका मृदा प्रदूषण में काफी योगदान है।
  2. खनन (Mining)- विभिन्न खनन प्रक्रियाओं मे धरातलीय प्रदूषण के साथ-साथ मृदा की ऊपरिमृदा (Topsoil) तथा अवमृदा (Subsoil) हट जाती है तथा पृथ्वी में गहरे गड्ढे बन जाते हैं।
  3. कृषि (Agriculture)- रसायन विज्ञान के क्षेत्र में हुई क्रांति का सीधा प्रभाव कृषि के क्षेत्र में पड़ता है। कृषि से अधिक उत्पादन के लिये सिंचाई, उन्नत बीजों का उपयोग, उर्वरकों, पीड़कनाशी, कवकनाशी, शाकनाशी, रसायनों आदि का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है। इन रसायनों का अत्यधिक उपयोग मृदा को गम्भीर रूप से प्रदूषित करता है।
  4. घरेलू कचरा (Garbage) – घरेलू कचरे के अन्तर्गत कागज, कांच व कपड़े, लोहे व एल्युमिनियम के डिब्बे, प्लास्टिक डिब्बे, पॉलिथीन थैलियाँ, रबर, चमड़े की कतरन, पशु खांद, भवन निर्माण के अपशिष्ट आदि आते हैं। भूमि प्रदूषण में सबसे अधिक योगदान घरेलू कचरे का है।
  5. रेडियोधर्मी पदार्थ (Radioactive substance) रेडियोधर्मी पदार्थों के विघटन से एल्फा या गामा किरणें निकलती रहती है। परमाणु परीक्षण से निकलने वाले रेडियोधर्मी तत्व भूमि में प्रवेश कर जाते हैं।
  6. मृतजीव (Dead Organism)- मृदा का प्रदूषण, पशुओं एवं पक्षियों व अन्य जीवों के मृत शरीर से भी होता है।

मृदा प्रदूषण के प्रभाव (Effects of Soil pollution)

  1. भूमि में रासायनिक खाद तथा फसल को विभिन्न कीटों एवं रोगों से बचाने के लिए विभिन्न, कवकनाशी, पीड़कनाशी रसायनों का उपयोग किया जाता है। ये विषैले रसायन मृदा के लाभदायक सूक्ष्म जीवों को भी नष्ट कर देते हैं। जिससे मृदा निर्माण की प्रक्रिया रूक जाती है।
  2. कीटनाशी, शाकनाशी, कवकनाशी रसायनों के छिड़काव से पौधों में प्रकाश संश्लेषण क्रिया मन्द हो जाती है।
  3. निरन्तर सिंचाई तथा उर्वरकों के उपयोग से भूमि में लवणता बढ़ती है तथा अनेक अवांछित खनिजों की मृदा मे बहुलता हो जाती है फलस्वरूप भूमि की उर्वरता नष्ट हो जाती है।
  4. क्लोरिन युक्त हाईड्रोकार्बन जैसे DDT, 2,4-D, 2,4,5-T का अपघटन नहीं होने से मृदा मे एकत्रित होते रहते है। जल एवं खनिजों के अवशोषण के साथ-साथ ये प्रदूषक भी पौधों द्वारा अवशोषित हो, खाद्य श्रृंखला (Food chain) में प्रवेश कर जाते है एवं विभिन्न पोषण स्तरों को विषाक्त बना देते है।
  5. खनन प्रक्रमों में किये जाने वाले विस्फोटों से क्षेत्र विशेष की कृषि उत्पादन क्षमता नष्ट हो जाती है।
  6. परमाणु परीक्षण से रेडियोधर्मी तत्व वायुमण्डल की ऊपरी परतों में एकत्रित हो जाते हैं। जो वर्षा के जल के साथ भूमि अथवा जल में प्रवेश कर जाते हैं।

तापीय प्रदूषण (Thermal Pollution)

किसी प्राकृतिक जलराशि में गर्म बहिःस्राव मिलाने पर उस जलराशि का ताप बढ़ने से तापीय प्रदूषण (Thermal Pollution) होता है। इससे जल की गुणवत्ता में गिरावट आती है और जलीय तथा थलीय जीवजात की हानि होती है।

तापीय प्रदूषण के स्रोत

तापीय प्रदूषण के स्रोत निम्नलिखित हैं :

  1. नाभिकीय विद्युत संयंत्र के बहिःसाव- इन विद्युत संयंत्रों के बहिःसावों का ताप प्रायः प्रशीतक में आने वाले जल से 10 से अधिक होता है। इससे जलीय जीवन बुरी तरह से प्रभावित होता है।
  2. तापीय विद्युत संयंत्र बहिःस्राव- इन संयंत्रों में विद्युत उत्पादन के लिए कोयले का उपयोग होता है। इसके लिए समीपस्थ जलराशि से जल लिया जाता है और लगभग 15° से. अधिक ताप पर उसी में वापस छोड़ दिया जाता है। गर्म बहिःआद, जल में ‘घुली हुई ऑक्सीजन’ को कम कर देते हैं जिससे मछलियों तथा अन्य जीवधारियों की मृत्यु हो जाती है।
  3. जल विद्युत शक्ति बहिःस्राव- विद्युत उत्पादन की यह एक मात्र प्रकिया है। जिससे जल तंत्र का ऋणात्मक तापीय उद्‌द्वारण (Negative thermal loading) होता है। 4. औद्योगिक बहिःसाव- वस्त्र, कागज, शर्करा आदि के उद्योग गर्म बहिःस्राव उत्पन्न करते हैं। ये 8 से 10° अधिक तापक्रम वाले होते हैं। इस बहिःस्राव का क्या प्रभाव होगा, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि जलाशय के मूल ताप से यह ताप कितना अधिक है।
  4. घरेलू वाहित मल- इन्हें उपचारित करके या बिना उपचार के ही नदियों, नहरों या झीलों में विसर्जित कर दिया जाता है। नगरीय वाहित मल का ताप सामान्यतः उच्च रहता है। यह जलाशय में उच्च स्तर तक ताप वृद्धि कर सकता है जिससे जलाशय का जलीय जीवजात कम हो जाता है, इससे अवायव दशाएँ उत्पन्न हो जाती है जो मछलियों की मृत्यु का कारण बनती है।

तापीय प्रदूषण के प्रभाव

जीवधारियों तथा जीवसमुदायों की जैविकी में तापीय प्रदूषण से होने वाले प्रतिकूल और भौतिक तथा रासायनिक परिवर्तनों में से कुछ निम्नलिखित है

(अ) भौतिक दशाएँ

  1. तापमान में वृद्धि।
  2. वाष्प दाब में वृद्धि।
  3. निलम्बित कणों (Suspended particles) को सिलटिंग दर में वृद्धि आदि।
  4. घनत्व में कमी।
  5. श्यानता (Viscocity) में कमी।

(ब) रासायनिक दशाएँ

  1. रासायनिक ऑक्सीजन माँग (C.O.D.) में वृद्धि।
  2. जैविक ऑक्सीजन माँग (BOD) में वृद्धि।
  3. विषाक्तता (Toxicity) में वृद्धि।

(स) जैविक प्रभाव

  1. कार्यिकीय (Physiological) गतिविधियों में परिवर्तन।
  2. उपापचयी (Metabolic) दरों में परिवर्तन।
  3. जैव-रासायनिक (Biochemical) प्रतिमानों में परिवर्तन ।
  4. प्रजनन में व्यवधान (Interference) |
  5. प्रजनन दर में विभिन्नता (Variation)।
  6. प्रत्यक्ष मृत्यु संख्या की कारणभूत संवेदनशीलता में वृद्धि ।

(द) जैव समुदायों पर प्रभाव

  1. जीवधारियों के वितरण प्रारूप परिवर्तित होते हैं।
  2. शैवाल समष्टि में अवांछित परिवर्तन ।
  3. सायनोबैक्टीरिया (नील हरित जीवाणु) द्वारा “वाटर ब्लूम्स” (जल प्रस्फुटन) बनाना।
  4. विनाशकारी जीवों का आक्रमण ।

रेडियोधर्मी प्रदूषण (Radioactive Pollution)

रेडियोधर्मी प्रदूषण वायुमंडल, जल, मिट्टी या जीवित ऊतकों में रेडियोधर्मी पदार्थों की उपस्थिति को संदर्भित करता है। यह प्रदूषण प्राकृतिक या मानव निर्मित हो सकता है।

रेडियोधर्मी प्रदूषण के स्त्रोत

रेडियोधर्मी प्रदूषण प्राकृतिक और मानव निर्मित दोनों स्रोतों से रेडियोधर्मी पदार्थों के पर्यावरण में रिलीज के कारण होता है।

प्राकृतिक स्रोत

  • रेडियोधर्मी क्षय पृथ्वी की पपड़ी में यूरेनियम, थोरियम और रेडियम जैसे रेडियोधर्मी तत्व पाए जाते हैं। ये तत्व समय के साथ विघटित होकर रेडियोधर्मी विकिरण छोड़ते हैं।
  • कोस्मिक किरणें ये उच्च ऊर्जा वाले कण हैं जो सूर्य और अन्य सितारों से निकलते हैं। वे पृथ्वी के वायुमंडल से टकराते हैं, जिससे रेडियोधर्मी विकिरण का निर्माण होता है।

मानव निर्मित स्रोत

  • परमाणु ऊर्जा परमाणु ऊर्जा संयंत्र बिजली उत्पन्न करने के लिए यूरेनियम के विखंडन का उपयोग करते हैं। यह प्रक्रिया रेडियोधर्मी विकिरण छोड़ती है।
  • परमाणु हथियार परमाणु हथियार विस्फोट बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी विकिरण छोड़ते हैं।
  • चिकित्सा और औद्योगिक उपयोग रेडियोधर्मी पदार्थों का उपयोग कैंसर के इलाज, चिकित्सा इमेजिंग और औद्योगिक प्रक्रियाओं में किया जाता है। .

रेडियोधर्मी प्रदूषण के प्रभाव

रेडियोधर्मी प्रदूषण का प्रभाव स्वास्थ्य, पर्यावरण, और अर्थव्यवस्था पर विनाशकारी हो सकता है।

स्वास्थ्य पर प्रभाव:

  • कैंसर: रेडियोधर्मी विकिरण के संपर्क में आने से कैंसर का खतरा बढ़ जाता है, खासकर ल्यूकेमिया, स्तन कैंसर, और फेफड़ों का कैंसर।
  • आनुवंशिक विकार: विकिरण डीएनए को क्षति पहुंचा सकता है, जिससे जन्मजात विकार और आनुवंशिक रोग हो सकते हैं।
  • प्रजनन क्षमता में कमी: विकिरण पुरुषों और महिलाओं दोनों में प्रजनन क्षमता को कम कर सकता है।
  • अन्य स्वास्थ्य समस्याएं: विकिरण के संपर्क में आने से थकान, कमजोरी, बाल झड़ना, और संक्रमण का खतरा बढ़ सकता है।

पर्यावरण पर प्रभाव:

  • जीवन को नुकसान: रेडियोधर्मी विकिरण सभी जीवित चीजों को नुकसान पहुंचा सकता है, जिसमें पौधे, जानवर और मनुष्य शामिल हैं।
  • पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव: विकिरण से पारिस्थितिकी तंत्र में बदलाव हो सकता है, जैसे कि खाद्य श्रृंखला में बदलाव और जैव विविधता में कमी।
  • जल और मिट्टी का प्रदूषण: रेडियोधर्मी पदार्थ जल और मिट्टी को प्रदूषित कर सकते हैं, जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए खतरा पैदा कर सकता है।

अर्थव्यवस्था पर प्रभाव:

  • चिकित्सा खर्च में वृद्धि: रेडियोधर्मी प्रदूषण से होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं के उपचार के लिए चिकित्सा खर्च बढ़ सकता है।
  • कृषि उत्पादन में कमी: विकिरण से फसलों और पशुओं को नुकसान हो सकता है, जिससे कृषि उत्पादन में कमी आ सकती है।
  • पर्यटन में कमी: रेडियोधर्मी प्रदूषण से प्रभावित क्षेत्रों में पर्यटन में कमी आ सकती है।

रेडियोधर्मी प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपाय

1. स्रोत पर नियंत्रण:

  • परमाणु ऊर्जा संयंत्रों में:
    • सुरक्षा मानकों को कड़ाई से लागू करना।
    • बेहतर डिजाइन और तकनीकों का उपयोग करना।
    • कर्मचारियों को उचित प्रशिक्षण और सुरक्षा उपकरण प्रदान करना।
    • नियमित निरीक्षण और रखरखाव करना।
  • चिकित्सा और औद्योगिक उपयोग में:
    • रेडियोधर्मी पदार्थों का उपयोग केवल आवश्यक होने पर ही करना।
    • सुरक्षा मानकों का पालन करना।
    • विकिरण की मात्रा को कम करने के लिए उचित तकनीकों का उपयोग करना।

2. अपशिष्ट प्रबंधन:

  • रेडियोधर्मी कचरे का सुरक्षित निपटान:
    • कचरे को अलग-अलग श्रेणियों में वर्गीकृत करना।
    • दीर्घकालिक भंडारण के लिए सुरक्षित भंडार का निर्माण करना।
    • पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग के विकल्पों का पता लगाना।
  • परिवहन:
    • सुरक्षित परिवहन के लिए कठोर नियमों का पालन करना।
    • दुर्घटनाओं से बचने के लिए उचित सावधानी बरतना।

3. जागरूकता और शिक्षा:

  • जनता को रेडियोधर्मी प्रदूषण के खतरों के बारे में शिक्षित करना:
    • स्वास्थ्य प्रभावों के बारे में जानकारी प्रदान करना।
    • सुरक्षा उपायों के बारे में जागरूकता फैलाना।
    • आपातकालीन प्रतिक्रिया योजनाओं के बारे में शिक्षा देना।
  • अनुसंधान और विकास:
    • रेडियोधर्मी प्रदूषण को कम करने के लिए नई तकनीकों का विकास करना।
    • विकिरण के प्रभावों को कम करने के लिए बेहतर उपचारों का पता लगाना।

4. अंतर्राष्ट्रीय सहयोग:

  • सुरक्षा मानकों और नियमों को विकसित करने और लागू करने के लिए देशों के बीच सहयोग:
    • सूचना साझा करना।
    • तकनीकी सहायता प्रदान करना।
    • आपातकालीन स्थितियों में एक दूसरे की सहायता करना।

5. वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का विकास:

  • परमाणु ऊर्जा पर निर्भरता कम करने के लिए:
    • नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों में निवेश करना।
    • ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देना।

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